वास्तु शास्त्र (Vastu Shastra): अद्भुत विज्ञान और रहस्य

वास्तु शास्त्र (Vastu Shastra)

वास्तु शास्त्र (Vastu Shastra): अद्भुत विज्ञान और रहस्य है। यह एक प्राचीन विज्ञान है। वेदों और पुराणों में वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों का वर्णन है। वास्तु शास्त्र अथर्ववेद का अंग है। वेदों में वास्तुशान्ति के अनेक मंत्र उपलब्ध हैं। अतः वास्तु शास्त्र उतना ही प्राचीन है जितने वेद प्राचीन हैं । 

वास्तु शास्त्र (Vastu Shastra) का सम्बन्ध दिशाओं ऊर्जा से है। इसमें दिशाओं को आधार बनाकर भूखण्ड, भवन, मन्दिर या निर्माण के आसपास मौजूद   नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक (Positive) किया जाता है। जिससे मानव जीवन पर अपना प्रतिकूल प्रभाव ना डाल सके और सकारात्मक प्रभाव पड़े।

इस सृष्टि के साथ मानव जीवन भी पञ्च महाभूत – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है और यही तत्व जीवन और सृष्टि को प्रभावित करते हैं। इसलिए वास्तु शास्त्र (Vastu Shastra) अद्भुत विज्ञान और रहस्य से भरा हुआ है।

वास्तु शास्त्र की प्राचीनता 

आजकल नए नए विद्वान इसको architecture बताते हैं। जैसे की वो इसके ज्ञाता हो। उनको वास्तु शास्त्र का अध्ययन करना चाहिए। खैर …. वास्तु शास्त्र में शिल्प और ज्योतिष का समावेश होता है। इसकी प्राचीनता का मैं आपको प्रमाण देता हूं।

त्रेता युग में वास्तु शास्त्र  

त्रेता युग में भगवान श्री राम ने अनेक स्थानों पर वास्तु शास्त्र का प्रयोग किया था। भगवान श्री राम ने रावण से प्रसिद्ध ज्योर्तिलिंग रामेश्वरम की वास्तु प्रतिष्ठा कराई थी।

भगवान श्री राम ने वनवास के समय पंचवटी में घास फूस से अपनी झोपड़ी बनाई। वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार वायु और प्रकाश की समुचित व्यवस्था को देख कर श्री राम प्रसन्न हो कर लक्ष्मण से कहा  — 

“कर्त्तव्य वास्तुशमनम सौमित्रे चिरंजीविभी:” – श्री वाल्मीकि रामायण/अयोध्या काण्ड/56 श्लोक 22.

हे लक्ष्मण ! हम इस पर्णशाला के अधिष्ठाता वास्तु देवता का पूजन यजन करेंगे। क्योंकि दीर्घ जीवन की इच्छा करने वाले पुरुषों को वास्तुशांति अवश्य करनी चाहिए। वास्तु शास्त्र की प्रमाणिकता एवम् उपयोगिता का इससे उत्कृष्ट उदाहरण और क्या हो सकता हैं।

द्वापर युग में वास्तु शास्त्र 

द्वापर युग में वास्तु शास्त्र प्रवर्तक विश्वकर्मा ने सुवर्णमयी द्वारिका नगरी का निर्माण किया था। उसी द्वारिका में सुदामा श्री कृष्ण से मिले थे। यह सुवर्णमयी द्वारका श्री कृष्ण की इच्छा के अनुसार समुद्र में लोप हो गई। जिसे बेट द्वारका के नाम से जाना जाता हैं।

श्री कृष्ण ने कहा था कि कलियुग के समय लोग सुवर्ण के लिए लड़ेगे और द्वारिका को नष्ट कर देगे। इसलिए   उस सुवर्णमयी द्वारिका को अपने प्रमाण के साथ लोप कर दिया। उसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं।

महाभारत काल में वास्तु शास्त्र (Vastu Shastra) अत्यन्त विकसित था। जिसमें नगर निर्माण के वास्तु का वर्णन मिलता हैं। उस समय मय नामक असुर ने जो कि वास्तु और शिल्प शास्त्र में सिद्ध हस्त था, मय महात्म्य नामक विलक्षण ग्रन्थ की रचना की थी। जो आज भी उपलब्ध हैं।

वास्तु पुरुष 

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पौराणिक काल में भगवान शिव के पसीने से एक महाभूत की उत्पत्ति हुई। उसने अपने सुप्त और विकराल देह से समस्त संसार को आच्छादित कर दिया। उसे देखकर इन्द्र सहित सभी देव भयभीत हुए और ब्राह्माजी की शरण में गए। और उनसे प्रार्थना की कि हे जगतपिता हमारी मदद कर हमारा मार्गदर्शन करें।

ब्रह्मा जी ने कहा – हे देव गणों भयभीत मत हो। इस महाभूत को पकड़ कर भूमि में अधोमुख गिरा कर तुम सब निर्भय हो जाओ। इस प्रकार सभी देवों ने मिलकर उस महाभूत को अधोमूख गिरा कर उस पर बैठ गए। तब उस महाभूत ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की – मेरी मदद कीजिए। उस वास्तु पुरुष (महाभूत) के वचन सुन कर ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया। तुम भूमि पर निवास करोगे वहा तुम्हारे साथ सभी देवगण भी निवास करेंगे।

ब्रह्मा जी ने वास्तु पुरुष से कहा की — ग्राम, नगर, दुर्ग, शहर, घर, जलाशय, महल आदि के निर्माण और गृह प्रवेश के समय जो तुम्हारा पूजन नहीं करेगा। उसे अनेक कष्ट भोगने पड़ेंगे। और भविष्य में तुम्हारा आहार बनेगा। तभी से वास्तु पुरुष की पूजा की जाती है।

भूमि , भूखण्ड में वास्तु पुरुष की स्थिति

वास्तु शास्त्र (vastu Shastra) के अनुसार वास्तु पुरुष भूमि पर अधोमुख स्थिति में है उसका मुंह जमीन की ओर एवम् पीठ ऊपर की ओर है। वास्तु पुरूष का सिर उत्तर पश्चिम दिशा अर्थात् ईशान कोण में और उसके पांव नेरूत्य कोण यानी दक्षिण पश्चिम में स्थित हैं। इसी प्रकार उसकी भुजाएं पूर्व और उत्तर में है।

वास्तु पुरूष को भवन या किसी निर्माण का का प्रमुख देवता माना जाता है। इसलिए निर्माण के प्रारम्भ में और गृह प्रवेश के समय वास्तु पुरुष की पूजा का विधान बताया गया है। वास्तु पुरूष के पांव नेरुत्य दिशा में होने से निर्माण के दौरान इसको ज्यादा भारी बनाया जाता है। ईशान कोण में सिर होने से निर्माण हल्का किया जाता है।

वास्तु पुरुष की पूजा करने से उस घर में रहने वाले लोगों को सुख समृद्धि और यश प्राप्त होता है। वे हर प्रकार के कष्टो से दूर रहते हैं। वास्तु पुरूष की पुजा के समय गणपति, ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पुजा की जाती है।

वास्तु शास्त्र में दिशाओं का महत्त्व

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वास्तु शास्त्र में दिशाओं का विशेष महत्व है। चार मूल दिशा – उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम होती है। इसके अलावा इन चारो दिशाओं के मध्य ईशान (उत्तर – पूर्व) , वायव्य (उत्तर – पश्चिम ), नेरूत्य (दक्षिण – पश्चिम) और आग्नेय (पूर्व – दक्षिण) चार दिशा होती है। इनका भी विशेष महत्व है। एवम् आकाश और पाताल मिलाकर कुल दस दिशाओं की ऊर्जा को निर्माण में इस प्रकार से समायोजन किया जाता है कि उस मे रहने वाले पर सकारात्मक प्रभाव पड़े ।

वास्तु शास्त्र के अनुसार घर, भवन का निर्माण करने से घर परिवार में खुशहाली आती है। यदि निर्माण में कोई वास्तु दोष हो तो किसी न किसी प्रकार की हानि या परेशानी का सामना करना पड़ता है।

पूर्व दिशा

वास्तु शास्त्र में पूर्व दिशा का विशेष महत्त्व है। यह दिशा सनातन धर्म में पूजनीय है। क्योंकि पूर्व दिशा उदित होते हुए सूर्य के सर्वप्रथम दर्शन कराती हैं। प्रातः कालीन सूर्य से उसे नई दिशा, नए जीवन, नवीन ऊर्जा, नवीन प्रेरणा की प्राप्ति होती हैं। इस दिशा के स्वामी इन्द्र देव है। भवन या कोई निर्माण करते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख समृद्धि कारक होता है। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर इसमें रहने वाले लोग बीमार रहते हैं। उन्नति के मार्ग में बांधा आती है। परेशानी और चिंता बनी रहती है।

पश्चिम दिशा

वास्तु शास्त्र में पश्चिम दिशा की भूमि दूसरी दिशाओं से ऊंची होनी चाहिए। एवम् निर्माण भारी होना चाहिए। इस दिशा में वास्तु दोष आपकी सफलता एवं यश के लिए अच्छा नहीं माना गया है। इस दिशा में आप टॉयलेट का निर्माण कर सकते है।

उत्तर दिशा

उत्तर दिशा के स्वामी कुबेर है। इस दिशा में खिड़किया और दरवाजे शुभ होते हैं घर की बालकनी भी शुभ होती है। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर धन की हानि एवम् केरियर में रुकावट आती हैं।

दक्षिण दिशा

इस दिशा के स्वामी यम देवता हैं। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर घर के स्वामी के मान सम्मान में कमी आती है। एवम् विभिन्न रोगों से पीड़ित रहता हैं।

ईशान दिशा (उत्तर – पूर्व)

उत्तर – पूर्व को ईशान दिशा कहते हैं। यह वरुण (जल) की दिशा होती है। ईशान दिशा में घर का पूजा स्थान शुभ होता हैं। इस दिशा में कुंआ बोरिंग, भूमिगत पानी का टांका आदि का निर्माण किया जाता हैं। घर का मुख्यद्वार रखना श्रेष्ठ होता है।

आग्नेय दिशा (दक्षिण – पूर्व)

यह अग्नि की दिशा होती है। इस दिशा में रसोई घर का निर्माण करना चाहिए। इस दिशा में बायलर, ट्रांसफार्मर और गैस आदि रखना चाहिए।

नेऋत्य दिशा (दक्षिण- पश्चिम)

इस दिशा में निर्माण दूसरी दिशाओं के निर्माण से भारी बनाया जाता है। इस दिशा में घर के स्वामी का कमरा शुभ होता हैं। इस दिशा में टॉयलेट भी रख सकते हैं।

वायव्य दिशा (उत्तर – पश्चिम)

यह वायु की दिशा मानी जाती है। गेस्ट रूम, वाहन पार्किंग, इस दिशा में शुभ माना गया है।

अगले लेख में मै आपको घर, जलाशय, फैक्ट्री या मन्दिर निर्माण के बारे में विस्तृत बताऊंगा। वास्तु शास्त्र के अनुसार कोन सा निर्माण कहा किया जाना शुभ होता हैं। यदि किसी निर्माण में वास्तु दोष है तो उसे बिना तोड़े कैसे सुधारा जा सकता हैं।

आपके अमूल्य सुझाव, क्रिया प्रतिक्रिया स्वागतेय है।

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